शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

सुन्दरता - अनुभव एवं अभिव्यक्ति

प्रत्येक व्यक्तित्व अथवा वस्तु में एक सुन्दरता छिपी होती है । आवश्यकता है तो सिर्फ उसे पह्चानने की, एक दृष्टि की जो हर वस्तु अथवा व्यक्तित्व में छिपी सुन्दरता को पहचाने, उसे ढूँढ निकाले ।

कभी नाव चलाते हुए नाविक को देखें । उसका शांत, स्मित चेहरा कितना मोहक लगता है या देखें खेत में काम करते हुए किसान को या एक काम करते हुए मज़दूर को या कला की सृष्टि में लीन एक कलाकार को या फिर संगीत का अभ्यास करते हुए गायक अथवा संगीतकार को । प्रत्येक की मुद्रा में एक भावनात्मक सुन्दरता एवं मोहकता नज़र आती है । इसे पह्चानने एवं अनुभव करने के लिये आवश्यकता है एक दृष्टि की जो स्वयं निर्मल एवं पूर्वाग्रह से मुक्त हो ।

आवश्यकता है न सिर्फ व्यक्तित्व में छिपी इस सुन्दरता को पहचानने की एवं अनुभव करने की बल्कि उसे उस व्यक्ति के सामने व्यक्त करने की । हमारी यह अभिव्यक्ति उस व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के एक सुन्दर पक्ष से परिचित कराती है और अपने में छिपी सुन्दरता को उजागर करने को प्रेरित करती है ।

उत्तरोक्ति : उपरोक्त पंक्तियों में उल्लिखित विचार की उत्पत्ति कुछ दृश्यों  के अनुभव का परिणाम है । इन पंक्तियों में वर्णित दृश्यों या इन जैसे कई दृश्यों को आपने भी अनुभव किया होंगा । पाठकों से अनुरोध है कि इस विषय में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करें । पाठकों की प्रतिक्रियाओं से लेखक का उत्साहवर्धन ही नहीं मार्गदर्शन भी होता है ।

रविवार, 3 अगस्त 2008

महंगाई से ज़्यादा फिक्र महंगाई-दर की ! !

पिछले कई महीनों से सारे देश में बढ़ती महंगाई चर्चा का एक प्रमुख विषय बनी हुई है । संसद हो या बाहर, मीडिया हो या आम सभा सभी ओर बढ़ती महंगाई की ही चर्चा है ।

आम आदमी का जीना दूभर हुआ जा रहा है परंतु सरकार को तो लगता है महंगाई-नियंत्रण से अधिक महंगाई-दर के नियंत्रण की ज़्यादा फिक्र है । आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों पर नियंत्रण की बजाय सी.आर.आर, रेपो-रेट, कर्ज पर ब्याज की दरों आदि में परिवर्तन पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है पर महंगाई-दर है कि बढ़ती ही जा रही है ।

देश में इस वर्ष गेहूँ की भरपूर फ़सल हुई है सरकारी खरीद भी भरपूर हुई परंतु दाम हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं । सरकार इस तरफ ध्यान देने की बजाय परमाणु-करार, वाम-दलों से बनते-बिगड़ते सम्बन्धों, राजनीतिक जोड़-तोड़, पूँजी-बाज़ार की उठा-पटक में ज़्यादा व्यस्त दीखती है ।

मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री के प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहते हुए यह दुर्दशा देख कर आश्चर्य भी होता है और साथ-साथ दुःख भी ।

बेहतर यह होगा कि सरकार राजनीतिक जोड़-तोड़ और वित्तीय आँकड़ों के खेल को छोड़कर बढ़ती महंगाई पर नियंत्रण के लिये आवश्यक प्रयासों पर ध्यान केन्द्रित करे ।

मंगलवार, 3 जून 2008

अमर-ज्योति

अप्रैल माह की 25 तारीख को मेरे चाचाजी का देहावसान हो गया। निधन से पूर्व ही उन्होंने नेत्र-दान की इच्छा व्यक्त की थी ।
निधन के तुरंत बाद हम लोगों ने एक स्थानीय नेत्र-बैंक को सूचना दी । वहाँ के दो डाक्टर शीघ्र ही आ गये और लगभग बीस मिनट में नेत्र-दान की प्रक्रिया पूर्ण हो गयी ।
3 मई को एक सादे किंतु भावपूर्ण समारोह में चाचाजी को मरणोपरांत अमर-ज्योति सम्मान प्रदान किया गया । 4 मई को समाचार पत्रों में खबर छपी कि चाचाजी के द्वारा दान किये गये नेत्रों के कॉर्निया के प्रत्यारोपण से दो व्यक्तियों के लिये संसार को देखना सम्भव हुआ । इस से पूर्व मेरी चाचीजी ने भी नेत्र-दान किया था ।
हमारे परिवार के अन्य सदस्यों का भी मत है कि हमें स्वेच्छा से नेत्र-दान करना चाहिये ।
वैसे भी इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है कि मृत्यु के पश्चात भी हमारे शरीर का कोई अंग किसी अन्य प्राणी के जीवन में खुशियॉं ला सके ।
ऐसे डाक्टर भी बधाई के पात्र हैं जो आजकल की अर्थ-लोलुप व्यवस्था में भी निःशुल्क समाज सेवा के लिये प्रयत्नशील हैं । मीडिया को ऐसी घटनाओं का प्रमुखता समुचित प्रचार-प्रसार करना चाहिये जिससे समाज के अधिक से अधिक लोगों को इससे प्रेरणा मिल सके ।
इस घटना के विवरण देने का उद्देश्य समाज के लिये कुछ सोचने की प्रक्रिया प्रारम्भ करने का एक छोटा सा प्रयास भर है । इस विषय में सभी पाठकों के विचार सादर आमंत्रित हैं ।

बुधवार, 16 जनवरी 2008

क्या किसी व्यक्ति को 'मंकी' कहना नस्लभेद है ?

अरे भई !  हरभजन के एंडृयू साइमंड्स को कथित रूप से 'मंकी' कहने पर इतना बवाल हुआ कि समूचे देश में और क्रिकेट खेलने वाले कुछ अन्य देशों में हाहाकार सा मच गया । न्यूज़-चैनलों व अन्य मीडिया को आगामी कुछ दिनों के लिये ख़ासा मसाला भी मिल गया ।

जो बात मैदान पर ही या मैदान के बाहर आपस में बातचीत से सुलझायी जा सकती थी उस पर मैच-रेफ़री माइक प्राक्टर की अदालत में छः घंटे तक माथापच्ची करने के बाद जो फैसला आया उसे 'भद्र पुरुषों' के खेल के लिये कलंक कहना उचित होगा ।

दरअसल तथाकथित 'गोरे' देशों के खिलाड़ी क्रिकेट को अपनी बपौती समझते हैं और अन्य देशों के खिलाड़ियों को हेय दृष्टि से देखते हैं । वे अपने अहम की तुष्टि के लिये मैदान पर अक्सर छींटाकशी एवं गाली-गलौज करते रहते हैं परंतु यदि विपक्षी खिलाड़ी पलटकर जवाब दे तो तिलमिला जाते हैं और इसे खेल-भावना के विरुद्ध बताकर दंड देने की माँग करते हैं।

अभी तक का क्रिकेट-इतिहास ऎसा ही रहा है । यह शायद पहली बार है कि उन्हें इस तरह के मामले में विपक्षी दल के जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा है ।

मैदान पर होने वाली साधारण सी छींटाकशी की घटना को तूल देकर नस्लभेद का रंग दे देना निहायत शर्मनाक है और इसका ज़ोरदार विरोध होना ही चाहिये ।

अंत में इस घटना पर एक हल्का-फुल्का नज़रिया : 

पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी माइकल होल्डिंग का इस घटना पर बयान - 'मंकी' शब्द को नस्लभेद का नाम देना ग़लत है क्योंकि हमारे पूर्वज बन्दर ही थे ।

होल्डिंग के इस बयान पर एक भारतीय की टिप्पणी - 'मंकी' शब्द हमारे लिये नस्लभेदी भले न हो परंतु 'कंगारुओं' के लिये तो है ही ।