मंगलवार, 3 जून 2008

अमर-ज्योति

अप्रैल माह की 25 तारीख को मेरे चाचाजी का देहावसान हो गया। निधन से पूर्व ही उन्होंने नेत्र-दान की इच्छा व्यक्त की थी ।
निधन के तुरंत बाद हम लोगों ने एक स्थानीय नेत्र-बैंक को सूचना दी । वहाँ के दो डाक्टर शीघ्र ही आ गये और लगभग बीस मिनट में नेत्र-दान की प्रक्रिया पूर्ण हो गयी ।
3 मई को एक सादे किंतु भावपूर्ण समारोह में चाचाजी को मरणोपरांत अमर-ज्योति सम्मान प्रदान किया गया । 4 मई को समाचार पत्रों में खबर छपी कि चाचाजी के द्वारा दान किये गये नेत्रों के कॉर्निया के प्रत्यारोपण से दो व्यक्तियों के लिये संसार को देखना सम्भव हुआ । इस से पूर्व मेरी चाचीजी ने भी नेत्र-दान किया था ।
हमारे परिवार के अन्य सदस्यों का भी मत है कि हमें स्वेच्छा से नेत्र-दान करना चाहिये ।
वैसे भी इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है कि मृत्यु के पश्चात भी हमारे शरीर का कोई अंग किसी अन्य प्राणी के जीवन में खुशियॉं ला सके ।
ऐसे डाक्टर भी बधाई के पात्र हैं जो आजकल की अर्थ-लोलुप व्यवस्था में भी निःशुल्क समाज सेवा के लिये प्रयत्नशील हैं । मीडिया को ऐसी घटनाओं का प्रमुखता समुचित प्रचार-प्रसार करना चाहिये जिससे समाज के अधिक से अधिक लोगों को इससे प्रेरणा मिल सके ।
इस घटना के विवरण देने का उद्देश्य समाज के लिये कुछ सोचने की प्रक्रिया प्रारम्भ करने का एक छोटा सा प्रयास भर है । इस विषय में सभी पाठकों के विचार सादर आमंत्रित हैं ।