गुरुवार, 12 नवंबर 2009

हिन्दी के मुख पर राजनीति का तमाचा

आम तौर मैं राजनीति से सम्बन्धित विषयों से कम ही सरोकार रखता हूँ परंतु दो दिन पूर्व हुई एक घटना से मन क्षुब्ध है और विचलित भी सो लिख रहा हूँ । इस घटना की जितनी भर्त्सना की जाय उतनी कम है।

आप भली-भांति समझ गये होंगे कि मैं किस घटना के विषय में बात कर रहा हूँ । शायद आप सभी इसके विषय में विस्तार से जान चुके होंगे । इस घटना से यह स्पष्ट है कि भारत में राजनीति कितने निम्न स्तर तक पहुँच चुकी है । राजनीतिज्ञ अपने लाभ के लिये राष्ट्रभाषा के अपमान सा जघन्य कृत्य करते हुए ज़रा भी लज्जित नहीं होते ।

यह हमारे संविधान निर्माताओं और राजनीतिज्ञों के ढुल-मुल रवैये का ही परिणाम है कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों के पश्चात भी हमारे देश में राष्ट्र,राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रभाषा के उचित सम्मान का अभाव है ।

जिस संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की बात हो उसी के मंदिर में राष्ट्रभाषा के अपमान की ऐसी घटना वास्तव में अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है ।

आज जब कई विदेशी भी हिन्दी सीख रहे हैं और हम संयुक्तराष्ट्र जैसे मंच पर हिंदी को स्थान दिलाने की बात कर रहे हैं उस समय हमारे अपने देश में ऐसी घटनाओं के चलते विश्व-समाज को क्या संदेश जायेगा यह विचार शायद हमारे राजनेताओं के मन को ज़रा भी विचलित नहीं करता ।

अपने राजनीतिज्ञ भाइयों से मेरा अनुरोध है कि वे शीघ्रातिशीघ्र अपने ढुल-मुल रवैये को त्याग कर हिंदी को उसका उचित स्थान और सम्मान दिलाने की दिशा में प्रयासरत हों । साथ ही अपने देशवासी भाईयों से भी अनुरोध है कि वे ऐसे राजनीतिज्ञों एवं राजनैतिक दलों को अपने प्रतिनिधित्व का अधिकार कदापि न दें जिनके मन राष्ट्रभाषा का सम्मान न हो